नीतिश्लोक

नीतिश्लोक

जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति। चेत: प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं सत्संगति: कथय किं न करोति पुंसाम्।।

सरलार्थ- सत्संगति बुद्धि की जड़ता हरती, सत्य कहलवाती, मान बढ़ाती है और पाप को दूर करती है। चित्त को प्रसन्न करती और दिशाओं में यश फैलाती है। इस प्रकार सज्जन पुरुषों की संगति मनुष्यों का क्या नहीं करती।।

वहति भुवनश्रेणि शेष: फणाफलकस्थितां कमठपतिना मध्ये पृष्ठं सदा स विधार्यते। तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरा-दहह महतां नि:सीमानश्चरित्रविभूतय:।।

सरलार्थ- भगवान् शेषनाग के रूप में अपने फणों पर सारे जगत् के भार को धारण करते हैं और फिर वे ही कच्छप रूप में सारे जगत् को अपनी पीठ पर रखते हैं। उन भगवान् को भी समुद्र अपनी गोद में धारण कर लेता है, अहो! विभूतिवानों की क्षमता असीम होती है।।

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा- स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभि: प्रीणयन्त:। परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं निजहृदि विकसन्त: सन्ति सन्त: कियन्त:।।

सरलार्थ- ऐसे सन्तजन विरले ही हैं जिनके मन, वचन व शरीर पुण्यरूपी सुधा से पूर्ण है, जो परोपकारी हैं तथा निरन्तर दूसरों के किंचित सद्गुणों को विस्तारित करने में हृदय से प्रसन्न होते हैं।।

किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव। मन्यामहे मलयमेव यदाश्रयेण कङ्कोलनिम्बकुटजा अपि चन्दना: स्यु:।।

सरलार्थ- यद्यपि सुमेरु पर्वत स्वर्ण के समान और कैलाश पर्वत चाँदी के समान प्रतीत होते हैं, तथापि उनपर उगने वाले वृक्ष साधारण ही होते हैं। इन पर्वतों की अपेक्षा मलयगिरि की महिमा अधिक है जिसपर उगने वाले कंकोल, निम्ब और कुटज जैसे वृक्ष भी चन्दनमय हो जाते हैं।।

क्वचिद्भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनं क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि:। क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो- मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम्।।

सरलार्थ- क्रिया सिद्धि चाहने वाले मनस्वी पुरुष सुख-दु:ख में सम रहते हैं। विभिन्न परिस्थितियाँ उन पर प्रभाव नहीं डालतीं। भूमि शयन अथवा पलंग पर, शाक के आहार में अथवा उत्कृष्ट व्यंजन में, जीर्ण वस्त्र में अथवा दिव्य वस्त्र में वे एक समान व्यवहार करते हैं।।

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरै: सह। न मूर्खजनसम्पर्क: सुरेन्द्रभवनेष्वपि।।

सरलार्थ- वनचारी जन्तुओं के साथ दुर्गम पर्वतीय स्थानों और जंगलों में रहना अच्छा है। परन्तु इन्द्रभवन में भी मूर्खों के साथ रहना कल्याणप्रद नहीं है।।

क्षान्तिश्चेद्वचनेन किं किमरिभि: क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधै: किं फलम्। किं सर्पैर्यदिदुर्जना: किमु धनैर्विद्याऽनवद्या यदि व्रीडा चेत्किमु भूषणै: सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम्।।

सरलार्थ- जिसके पास सहनशक्ति है, उसको मीठे वचनों से क्या प्रयोजन है। जिसको क्रोध है उसे शत्रुओं का क्या काम है। यदि पास में कोई स्वजातीय हो तो अग्नि की कोई आवश्यकता नहीं है, यदि पास में मित्र हैं तो उत्तम औषधियों का काम नहीं। यदि निकट में दुर्जन हैं तो सर्पों की आवश्यकता नहीं। यदि अपने पास प्रशंसनीय विद्या हो तो धन से क्या काम ? यदि लज्जा है तो बाहरी आभूषणों की आवश्यकता नहीं और यदि सुन्दर कवित्व-शक्ति है तो राज्य से क्या प्रयोजन है।।

दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने शाठ्यं सदा दुर्जने प्रीति: साधुजने नयो नृपजने विद्वज्जनेष्वार्जवम् शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धूर्तता ये चैवं पुरुषा: कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थिति:।।

सरलार्थ- जो स्वजनों से उदारता, परजनों से दया, दुर्जनों से शठता का व्यवहार करते हैं और साधु से प्रीति, राजा से नीति, पण्डितों से सरलभाव, शत्रुओं से शूरता, गुरु से सहनशीलता, स्त्रियों से चतुराई का व्यवहार करना जानते हैं, वे ही लोग कला में कुशल माने जाते हैं तथा उन्हीं से संसार की स्थिति है।।

सूनु: सच्चरित: सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुख: स्निग्धं मित्रमवञ्चक: परिजनो निक्लेशलेशं मन:। आकारो रुचिर: स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं तुष्टे विष्टपहारिणीष्टदहरौ संप्राप्यते देहिना ।।

सरलार्थ- सदाचारी पुत्र, पतिव्रता स्त्री, प्रसन्न रहने वाला स्वामी, प्रेमी मित्र, धूर्तता रहित परिवार, क्लेश-विहीन मन, सुन्दर तथा स्थिर ऐश्वर्य और विद्या से पवित्र मुख – ये सब मनुष्य को तभी मिलते हैं जब भगवान् नारायण सन्तुष्ट होते हैं ।।

प्राणाघातान्निवृत्ति: परधनहरणे संयम: सत्यवाक्यं काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभाव: परेषाम्। तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनय: सर्वभूतानुकम्पा सामान्य: सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधि: श्रेयसामेष पन्था:।।

सरलार्थ- अपने या दूसरे की हिंसा से निवृत्ति हो। दूसरे के धन हरण में विरति हो। सत्य बोलें, अवसर आने पर यथा- योग्य दान दें तथा जहाँ परस्त्री की चर्चा हो वहाँ मौन रहें। तृष्णा को शान्त करें, श्रेष्ठ लोगों के प्रति नम्रता का व्यवहार करें तथा सब प्राणियों पर दया करें – यही सभी शास्त्रों में वर्णित कल्याण का एक मात्र मार्ग है।।

साहित्यसङ्गीतकलाविहीन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन:। तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ।।

सरलार्थ- जो मनुष्य साहित्य, संगीत तथा कलाओं को नहीं जानता, वह पूँछ और सींग से रहित पशु ही है, वह घास को न खाते हुए भी जीवित रहता है, यह अन्य पशुओं का परम सौभाग्य है।।

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:। ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

सरलार्थ- जिनके पास विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, गुण व धर्म नहीं है, मनुष्य के रूप में पृथिवी पर भार-स्वरूप वे पशु की भाँति (व्यर्थ) विचरण करते हैं।।

हर्त्तुर्याति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा ह्यर्थिभ्य: प्रतिपाद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धिं पराम्। कल्पान्तेष्वऽपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धनं येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपा: कस्तै: सह स्पर्धते।।

सरलार्थ- जो धन चोरों को दिखलायी नहीं पड़ता और सदा कल्याण को बढ़ाता है, तथा याचकों को सतत रूप से देते रहने पर भी जो बढ़ता ही जाता है, जो प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होता, इस प्रकार का विद्या नामक गुप्त धन जिसके पास है, हे राजाओं ! उनके सामने गर्व करना छोड़ दो, उनकी बराबरी भला कौन कर सकता है?

केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजा:। वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्।।

सरलार्थ- पुरुष की शोभा बाहु में केयूर पहनने से नहीं होती, न ही चन्द्रमा जैसे उज्ज्वल हार पहनने से; स्नान, चन्दन लेप, पुष्प श्रृंगार से अथवा केश सॅवारने से भी नहीं; किन्तु केवल शुद्ध वाणी से ही शोभा होती है। क्योंकि भूषण तो घिसकर नष्ट हो जाते हैं लेकिन वाणी ही सदा के लिए भूषण है, जो नष्ट नहीं होती।।

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं विद्या भोगकरी यश:सुखकरी विद्या गुरूणां गुरु:। विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्या विहीन: पशु:।।

सरलार्थ- विद्या ही मनुष्य का सर्वोत्तम रूप तथा गुप्त धन है। विद्या ही भोग्य पदार्थों को देती है; यश और सुख को देने वाली तथा गुरुओं की भी गुरु है। विद्या ही विदेश में बन्धुजनों की भाँति सुख-दु:ख में सहायक होती है और यही भाग्य है। राजाओं के द्वारा विद्या की ही पूजा होती है, धन की नहीं। अत: विद्या से हीन पुरुष पशु के समान है। तात्पर्य यह है कि विद्या अवश्य प्राप्त करनी चाहिए।।

नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा विधिर्वन्द्य: सोऽपि प्रतिनियतकर्मैकफलद:। फलं कर्मायत्तं किममरगणै: किञ्च विधिना नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्य: प्रभवति।।

सरलार्थ- प्रस्तुत श्लोक में कवि ने कर्मफल के सिद्धान्त को सर्वोपरि ठहराया है। मनुष्य जिन देवताओं से याचना करते हैं वे भी कर्मफल के अधीन हैं। अत: मनुष्य को कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए।।

ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासंकटे। रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारित: सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नम: कर्मणे।।

सरलार्थ- कवि कर्म को प्रधान मानते हैं। कर्मानुसार ही ब्रह्मा जगत् की सृष्टि करते हैं, विष्णु को दशावतारों में विभिन्न लीलाएँ करनी पड़ीं तथा भगवान् शंकर को भिक्षाटन करना पड़ा। कर्म ही सूर्य आदि नक्षत्रों को आकाश में घुमाता है।।

गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यमादौ परिणतिरवधार्या यत्नत: पण्डितेन। अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्ते-र्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाक:।।

सरलार्थ- विद्वान् गुण-दोष का भलीभाँति विचार करके ही कार्य करते हैं। क्योंकि बिना विचारे शीघ्रता में किये गये कार्य का परिणाम विपत्तिदायक एवं कष्टप्रद होता है।।

दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्त्तये। स्वानुभूत्येकमानाय नम: शान्ताय तेजसे।।

सरलार्थ- जो दिशाओं (उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम), तथा कालों (भूत, भविष्य, वर्तमान) आदि सीमा के अन्तर्गत बॅधा नहीं है अर्थात् इनसे परे है वह अनन्त स्वरूप चेतन ब्रह्म जो केवल अनुभव- गम्य है ऐसे उस प्रकाशमय शान्त-ब्रह्म को नमस्कार करता हूँ।।

( भर्तृहरि विरचित “नीतिशतक” नामक ग्रन्थ से माँ दुर्गा के भक्तजनों हेतु “दिवाकरमणि” द्वारा संकलित एवं टंकित)

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