मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा- स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभि: प्रीणयन्त:। परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं निजहृदि विकसन्त: सन्ति सन्त: कियन्त:।।
- ऐसे सन्तजन विरले ही हैं जिनके मन, वचन व शरीर पुण्यरूपी सुधा से पूर्ण है, जो परोपकारी हैं तथा निरन्तर दूसरों के किंचित सद्गुणों को विस्तारित करने में हृदय से प्रसन्न होते हैं।।